उत्तर प्रदेश: भाजपा भारतीय राजनीति में हिंदुत्व और राष्ट्रवाद के एजेंडे को प्रमुख रूप से आगे बढ़ाती रही है, अब ये उत्तर प्रदेश के आगामी उपचुनावों में इसी रणनीति को और मजबूत करने की तैयारी में है।
हाल के दिनों में संविधान और आरक्षण से जुड़े मुद्दों पर उठे सवालों के कारण भाजपा को विभिन्न जातीय समूहों के बीच संतुलन बनाने की चुनौती का सामना करना पड़ा है। इस संदर्भ में पार्टी ने फिर से हिंदुत्व के एजेंडे को अपनाने का फैसला किया है, ताकि जातीय विभाजन को कम किया जा सके और एक व्यापक हिंदू वोट बैंक को साधा जा सके।
हरियाणा और जम्मू-कश्मीर के चुनाव परिणामों का प्रभाव
हरियाणा और जम्मू-कश्मीर के हालिया चुनाव परिणाम भाजपा के लिए महत्वपूर्ण साबित हुए हैं। हरियाणा में भाजपा ने तीसरी बार सत्ता में आने का कारनामा किया और 2014 तथा 2019 के चुनावों की तुलना में अधिक सीटें जीतने में कामयाब रही। इससे यह स्पष्ट हुआ कि भाजपा की रणनीति, जिसमें हिंदुत्व के साथ-साथ जातिगत समीकरणों को साधने पर जोर दिया गया था वो सफल रही।
हालांकि जम्मू-कश्मीर में भाजपा को सरकार बनाने में सफलता नहीं मिली, फिर भी पार्टी को सबसे अधिक वोट हासिल हुए। यह भाजपा के लिए एक बड़ी उपलब्धि मानी जा रही है, क्योंकि यह क्षेत्र एक समय कांग्रेस और क्षेत्रीय दलों का गढ़ माना जाता था। इन चुनाव परिणामों से भाजपा को एक नई ऊर्जा और आत्मविश्वास मिला है, जिसे वह अब यूपी के उपचुनावों में भी भुनाने की योजना बना रही है।
यूपी उपचुनावों में भाजपा की रणनीति
भाजपा उत्तर प्रदेश के नौ विधानसभा सीटों पर नवंबर में होने वाले उपचुनावों के लिए अपनी रणनीति तैयार कर रही है। पार्टी का मानना है कि हिंदुत्व और राष्ट्रवाद का फार्मूला जातिगत समीकरणों को साधने में कारगर साबित हो सकता है। यूपी की राजनीति में जातिगत गोलबंदी का बहुत बड़ा प्रभाव होता है, खासकर जाट, यादव, दलित, और अन्य ओबीसी जातियों का। भाजपा इन सभी समूहों को अपने पक्ष में करने के लिए हिंदुत्व के एजेंडे को धार देने की कोशिश कर रही है।
पार्टी के "बंटोगे तो कटोगे" जैसे नारों ने हरियाणा और जम्मू-कश्मीर के चुनावों में अहम भूमिका निभाई। इस नारे ने जातीय विभाजन को दरकिनार कर एक व्यापक हिंदू मतदाता आधार बनाने में मदद की, जहां जाट, दलित, और यादव वोट बैंक में सेंध लगाने में सफलता मिली। यूपी में भी भाजपा इसी रणनीति को अपनाने जा रही है, जहां गैर-जाटव दलितों और गैर-यादव ओबीसी समूहों को हिंदुत्व के नाम पर संगठित किया जा सकता है।
हिंदुत्व और राष्ट्रवाद की रणनीति हो सकती है फायदेमंद
राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि भाजपा की हिंदुत्व और राष्ट्रवाद की रणनीति यूपी के उपचुनावों में कारगर साबित हो सकती है। 2014 से लेकर 2022 तक के चुनाव परिणाम इस बात की गवाही देते हैं कि हिंदुत्व की लामबंदी जातिगत गोलबंदी पर हावी रही है। भाजपा की कोशिश होगी कि वह इसी ताकत को फिर से उभार कर यूपी के राजनीतिक समीकरणों को अपने पक्ष में करे।
भाजपा के लिए यह उपचुनाव एक परीक्षण होगा, जो 2027 के विधानसभा चुनावों के लिए उसकी रणनीति का आधार तय कर सकता है। अगर पार्टी हिंदुत्व और राष्ट्रवाद के एजेंडे पर सफल रहती है, तो यह भविष्य की राजनीति के लिए एक मजबूत संकेत हो सकता है।
कांग्रेस और सपा की तैयारियाँ?
भाजपा की इस रणनीति का मुकाबला करने के लिए कांग्रेस और समाजवादी पार्टी (सपा) ने भी अपनी तैयारियां शुरू कर दी हैं। कांग्रेस भाजपा की हिंदुत्व नीति का विरोध करते हुए सामाजिक न्याय और समावेशिता के मुद्दों पर जोर दे रही है। वहीं सपा भी अपने परंपरागत यादव और मुस्लिम वोट बैंक को संगठित करने की कोशिश कर रही है। दोनों ही दल भाजपा के हिंदुत्व के एजेंडे की काट के रूप में अपने-अपने सामाजिक समीकरणों को मजबूत करने पर काम कर रहे हैं।