ऐसे कम उम्र के बच्चों में तेजी से बढ़ रहा दृष्टि दोष का खतरा: क्या लाइफस्टाइल में बदलाव है प्रमुख वजह या फिर... जानें पूरी खबर
ऐसे कम उम्र के बच्चों में तेजी से बढ़ रहा दृष्टि दोष का खतरा

स्वास्थ्य: वर्तमान समय में लोगों के रहन-सहन तथा दिनचर्या में आए बदलाव की वजह से अनेक तरह की स्वास्थ्य समस्याएं भी बढ़ी हैं। वहीं इनमें से एक समस्या हमारी आंखों से भी जुड़ी हुई है, खासकर कम उम्र के बच्चों व विद्यार्थियों से। दरअसल उनकी जीवनशैली, पढ़ाई तथा मनोरंजन के तौर-तरीकों में आए कई बदलावों की वजह से उनकी आंखों की रोशनी अब कम होने लगी है। 

कम उम्र के बच्चों में हो रही है मायोपिया की समस्या:

खासकर मायोपिया अर्थात निकट दृष्टिदोष होने की वजह से कम उम्र के बच्चों को भी अब चश्मा लगाने की जरूरत पड़ रही है। जबकि आमतौर पर तो यह समस्या 8 से 10 वर्ष के बच्चों में पहले देखी जाती थी। इसके पश्चात 18 वर्ष की उम्र तक चश्मे का लगभग नंबर स्थिर हो जाता था। 

लेकिन हाल में हुए कुछ रिसर्च में यह पता चला है कि मायोपिया के लक्षण अब चार-पांच वर्ष के बच्चों में भी दिखाई देने लगे हैं। वहीं बहुत कम उम्र में इस प्रकट की समस्या होने की वजह से चश्मे का नंबर भी तेजी से बढ़ने लगता है।

आंखों को अधिक नुकसान होने की आशंका:

बता दें कि चश्मे का माइनस नंबर बढ़ने की वजह से आंख की आंतरिक परत अर्थात रेटिना प्रभावित होती है, जो कि प्रकाश के प्रति बेहद संवेदनशील होती है। वहीं मायोपिया होने की दशा में भी रेटिना प्रभावित होती है। 8 से 10 प्रतिशत बच्चों में तो मायोपिया की वजह से ही रेटिना यानी आंख के पर्दे में छेद भी हो सकता है। 

ऑपरेशन में 80 प्रतिशत ही मिलती है कामयाबी:

इससे पर्दा अपने स्थान से हिल सकता है, जिसे रेटिनल डिटैचमेंट कहा जाता हैं। इससे आंखों की पूरी रोशनी जाने का भी खतरा बना रहता है। रेटिनल डिटैचमेंट का इलाज आपरेशन के द्वारा ही हो सकता है। हालांकि इलाज के पश्चात भी करीब 80 प्रतिशत ही कामयाबी मिलती है। वहीं इन 80 प्रतिशत में भी पूरी तरह से आंखों की रोशनी नहीं आ पाती है।

केरैटोकोनस बीमारी का भी होता है जोखिम:

इसके अतिरिक्त केरैटोकोनस बीमारी की वजह से भी चश्मे का नंबर माइनस में हो सकता है, जिसमें आंखों की पुतली अर्थात कार्निया पतली तथा बेहद कमजोर होने लगती है। यह बीमारी बचपन में अथवा किशोरावस्था में शुरू हो जाती है तथा धीरे-धीरे रोशनी कम होने लगती है। यह स्थिति गंभीर होने के बाद चश्मा लगाने पर भी पूरी तरह से साफ नहीं दिखता है। 

यहां तक कि कभी कभी तो कार्निया बदलने की नौबत भी आ सकती है, जिसके लिए किसी के द्वारा दान की गई कार्निया का प्रयोग किया जाता है। ऐसी कभी परेशानियों से बचने के लिए 3 साल की उम्र से ही बच्चे की आंखों की जांच अवश्य कराई जानी चाहिए। ताकि समस्या जल्द ही पकड़ में आ जाए और सही समय पर उसका इलाज शुरू हो जाता है तथा बच्चे को अंधा होने से भी बचाया जा सकता है।

तेजी के साथ बढ़ रहा है मायोपिया:

दरअसल पहले तो मायोपिया के मामले सिर्फ 8 से 10 प्रतिशत बच्चों में ही पाए जाते थे। लेकिन अब यह आंकड़ा करीब 30 से लेकर 35 प्रतिशत तक पहुंच गया है। एक अनुमान के अनुसार 2050 तक करीब 50 प्रतिशत लोग मायोपिया के शिकार हो जाएंगे। 

हालांकि इसमें अच्छी बात यह है कि मायोपिया के उपचार के लिए नए प्रकट के समाधान भी उपलब्ध हैं। दवाओं तथा ड्राप के माध्यम से ही आंखों की बीमारी को काफी हद तक नियंत्रित किया जा सकता है। प्रतिदिन आइ ड्राप के प्रयोग तथा हर 3 महीने पर आंखों की जांच कराई जाती है। 

चश्मों की मदद से भी हो सकता है नियंत्रण:

वहीं इसका प्रयोग चश्मे का नंबर बिल्कुल स्थिर होने तक भी करना पड़ सकता है। हालांकि प्रति वर्ष आधा नंबर बढ़ना तो स्वाभाविक माना जाता है, लेकिन इससे अधिक बढ़ने पर यह आंखों के लिए काफी खतरनाक भी हो सकता है। इसके अतिरिक्त कुछ खास प्रकार के चश्मों से भी मायोपिया को लगभग नियंत्रित करने में मदद मिल जाती है।

ध्यान रखें कुछ जरूरी बातें:

1)आंखों की मांसपेशियों के बेहद कमजोर होने पर कुछ एक्सरसाइज के द्वारा भी इसे बेहतर किया जा सकता है।

2)वहीं यदि बच्चे का चश्मा लगा है तो हर 3 महीने पर उनकी जांच करानी चाहिए, ताकि आंखों की सही स्थिति का पता लगाया जा सके।

3)साथ ही बच्चों को कम से कम डेढ़ घंटे हेतु घर से बाहर भी खेलने के लिए प्रेरित किया जाना चाहिए।

4)वहीं लगातार स्मार्टफोन अथवा गैजेट्स की स्क्रीन पर काम करने तथा गेम खेलने से भी आंखों की परेशानी बढ़ सकती है, इसलिए भी आउटडोर एक्टिविटी करनी चाहिए।

5)जबकि स्क्रीन तथा पुस्तकों से दूर होने पर हमारी आंखों की मांसपेशियों को काफी आराम मिलता है, जिससे मायोपिया को भी नियंत्रित करने में काफी मदद मिलती है।

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